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त्वम॑ग्ने॒ वरु॑णो॒ जाय॑से॒ यत्त्वं मि॒त्रो भ॑वसि॒ यत्समि॑द्धः। त्वे विश्वे॑ सहसस्पुत्र दे॒वास्त्वमिन्द्रो॑ दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne varuṇo jāyase yat tvam mitro bhavasi yat samiddhaḥ | tve viśve sahasas putra devās tvam indro dāśuṣe martyāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। वरु॑णः। जाय॑से। यत्। त्वम्। मि॒त्रः। भ॒व॒सि॒। यत्। सम्ऽइ॑द्धः। त्वे इति॑। विश्वे॑। स॒ह॒सः॒। पु॒त्र॒। दे॒वाः। त्वम्। इन्द्रः॑। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:3» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब बारह ऋचावाले तीसरे सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा के कर्त्तव्य को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहसः) बल के (पुत्र) पालन करनेवाले (अग्ने) विद्या का अभ्यास किये हुए विद्वान् ! (यत्) जिसके (त्वम्) आप (मित्रः) सखा और (यत्) जिससे (समिद्धः) प्रकाशयुक्त (भवसि) होते हो और जो (त्वम्) आप (वरुणः) दुष्टों के बन्ध करनेवाले श्रेष्ठ (जायसे) होते हो और जो (त्वम्) आप (इन्द्रः) ऐश्वर्य्य के दाता (दाशुषे) देने योग्य (मर्त्याय) मनुष्य के लिये धन देते हो उन (त्वे) आप में (विश्वे) सम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् जन प्रसन्न होते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जिसके आप मित्र वा जिससे आप विरुद्ध और उदासीन होते हैं, वह आपके साथ सदैव मित्रता रक्खे और आप भी उसके साथ रक्खें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजकर्तव्यकर्म्माह ॥

अन्वय:

हे सहसस्पुत्राग्ने ! यत्त्वं मित्रो यत्समिद्धो भवसि यस्त्वं वरुणो जायसे यस्त्वमिन्द्रो दाशुषे मर्त्याय धनं ददासि तस्मिँस्त्वे विश्वे देवाः प्रसन्ना जायन्ते ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अग्ने) कृतविद्याभ्यास (वरुणः) दुष्टानां बन्धकृच्छ्रेष्ठः (जायसे) (यत्) यस्य (त्वम्) (मित्रः) सखा (भवसि) (यत्) येन (समिद्धः) प्रदीप्तः (त्वे) त्वयि (विश्वे) सर्वे (सहसः) (पुत्रः) बलस्य पालक (देवाः) विद्वांसः (त्वम्) (इन्द्रः) ऐश्वर्यदाता (दाशुषे) दातुं योग्याय (मर्त्याय) ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यस्य त्वं सखा यस्माद्विरुद्ध उदासीनो वा भवसि स त्वया सह सदैव मित्रतां रक्षेत् त्वमपि ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात राजा व प्रजेला चोरी व अन्य अपराध इत्यादींचे निवारण सांगितल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे राजा! ज्याच्याबरोबर तू मैत्री ठेवतोस किंवा जो तुझा शत्रू आहे त्याच्याशी तू असा वाग, की त्याने तुझ्याबरोबर सदैव मैत्री करावी व तूही त्याच्याबरोबर मैत्री ठेवावीस. ॥ १ ॥